वेदान्त दर्शन में ज्ञान की अवधारणा
वेदान्त शब्द का शाब्दिक अर्थ 'वेदों का अन्तिम भाग' है। वेद शब्द 'विद ज्ञाने' धातु से निष्पन्न ज्ञान का पर्यायवाची है। 'मोक्ष' क्या है और इसकी प्राप्ति के कौन-कौन से साधन हैं? इसकी व्याख्या ही वेदान्त है। सभी भारतीय दर्शनों में ज्ञान की प्राप्ति का मूल मोक्ष को ही स्वीकारा गया है। अत: मोक्ष प्राप्ति का साधन ही ब्रह्मज्ञान है।
वेदान्त का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। वेदान्त के अनुसार मोक्ष प्राप्ति ज्ञान से ही हो सकती है। इसने हमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकता और अनेकता का स्पष्ट ज्ञान कराकर हमें अपनी अनन्त शक्ति से परिचित कराया। शंकराचार्य ने विस्तार से इस मान्यता का खण्डन किया कि मोक्ष एक साध्य वस्तु है, जिसे कर्म द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि साध्य वस्तु वही हो सकती है जो पहले से न हो, जिसे उत्पन्न किया जा सके। मोक्ष तो स्वयं आत्मा का स्वरूप है, वह पहले से ही सिद्ध है, अतः कर्म द्वारा उसे प्राप्त करना सम्भव नहीं है। मोक्ष तो आत्म स्वरूप होने के कारण नित्य वस्तु है। अज्ञानरूपी अन्धकार से आवृत्ति होने के कारण उसकी प्रतीति नहीं होती। ज्ञान के प्रकाश से वह प्रकट हो जाता है और यहीं उसकी प्राप्ति होती है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान अनिवार्य है, कर्म नहीं कर्म तो स्वयं अज्ञानजन्य है और पुनः पाप-पुण्य को उत्पन्न करने के कारण जन्म-मरण के बन्धन को उत्पन्न करता है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान आवश्यक है।
शंकराचार्य ने ज्ञान के दो भेद बताए हैं- अपरा तथा परा। अपरा को हम लौकिक अथवा व्यावहारिक ज्ञान मानते हैं और परा को आध्यात्मिक ज्ञान अपरा ज्ञान के अन्तर्गत इस जगत और मनुष्य जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित ज्ञान आता है। शंकराचार्य की दृष्टि में इस ज्ञान की केवल व्यवहारिक उपयोगिता है। इस प्रकार के ज्ञान से मनुष्य अपने जीवन के अन्तिम उद्देश्य (मोक्ष) की प्राप्ति नहीं कर सकता। शंकराचार्य के अनुसार पर ज्ञान सच्चा ज्ञान है। इस ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य अपने जीवन का अन्तिम उद्देश्य अर्थात् मुक्ति प्राप्त कर सकता है। शंकर वेद, ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद् एवं गीता की तत्त्व मीमांसा को परा ज्ञान कहते हैं। अपरा और परा दोनों प्रकार के ज्ञान के लिए शंकर ने श्रवण, मनन, निदिध्यासन का समर्थन किया है। परा ज्ञान की प्राप्ति के लिए वेदान्त में श्रवण, मनन, निदिध्यासन के साथ साधन चतुष्टय को आवश्यक माना गया है। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी वही है, जिसने पहले साधन चतुष्टय प्राप्त कर लिया है। ये साधन चतुष्टय (चार साधन) हैं -
प्रथम साधन- नित्यानित्य वस्तु विवेक मुमुक्ष के लिए प्रथम आवश्यकता है नित्य (Eternal) और अनित्य (Non-Eternal) पदार्थों के बीच विवेकपूर्ण भेद कर सकना। इसके अन्तर्गत जगत और ब्रह्म के बीच भेद, शरीर और आत्मा का भेद, आत्मा और परमात्मा की एकता, साधन और साध्य के बीच भेद आदि समावेश होता है।
द्वितीय साधन-इहामुत्रार्थ-भोगविराग: विवेकपूर्ण ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् तृष्णा का त्याग आवश्यक है। अनेक लौकिक और पारलौकिक भोग हैं, जिनकी आकांक्षा मात्र व्यक्ति को असंयमित कर देती है और लक्ष्य की ओर बढ़ना कठिन कर देती है। अतः द्वितीय साधन लौकिक एवं पारलौकिक भोगों की कामना से पूर्ण विरक्ति हो जाना है।
तृतीय साधन-शम-दमादि साधन सम्पत् : इस साधन के अन्तर्गत छः प्रकार के संयम आते हैं। आकांक्षा का त्याग करने के पश्चात् इन्द्रिय, मन आदि उन शारीरिक अंगों पर अधिकार करने का प्रश्न उठता है जो मनुष्य को भोगों की और प्रवृत्त करते हैं। शम का अर्थ है-मन का संयम। दम का अर्थ है-इन्द्रियों पर नियन्त्रण तीसरा संयम है उपरति- जिसका तात्पर्य निहित कर्मों का विधिपूर्वक परित्याग कर देना है। चौथा संयम है। तितिक्षा जिसका तात्पर्य शरीर को शीतोष्ण आदि कष्टों को सहन करने योग्य बनाना। पाँचवाँ संयम है-समाधान-जिसका अर्थ है शब्द आदि विषयों से निगृहीत मन को श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा अनेक उपकारक विषयों के चिन्तन में निरन्तर लगाए रखना। छठा संगम है-गुरुपदृष्टि जिसका अर्थ वेदान्त वाक्यों में विश्वास श्रद्धा है।
चतुर्थ साधन-मुमुक्षुत्व: उपर्युक्त तीनों साधनों को प्राप्त करने के बाद साधक को लक्ष्य प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प करना चाहिए, क्योंकि बिना संकल्प के अव्यवसाय नहीं होता और अव्यवसाय के अभाव में लक्ष्य प्राप्ति नहीं हो सकती। यह लक्ष्य है मुमुक्षुत्व अर्थात् मोक्ष पाने की इच्छा ।
शंकर के अतिरिक्त रामानुज ने भी ज्ञान को दो भागों में विभाजित किया है-धर्मीभूत ज्ञान और धर्मभूत ज्ञान। धर्मीभूत ज्ञान से उनका तात्पर्य कर्त्तारूप ज्ञान से है। धर्मीभूत ज्ञान से उनका तात्पर्य, कर्म में विद्यमान ज्ञान से हैं। रामानुज ने जगत के ज्ञान को भी उतना ही महत्त्व का माना है जितना कि ब्रह्म ज्ञान को उसमें शर्त यह है कि जगत में रहकर जो भी ज्ञान प्राप्त किया जाए वह आत्मोन्नति के लिए किया जाए।