ज्ञान की अवधारणा (Concept of Knowledge)


 


ज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा

                वह विचार जो चिन्तन की विषय वस्तु की वास्तविक प्रकृति के अनुरूप हो, ज्ञान कहलाता है। जैसे ऐसा कोई प्राणी जो जगत की वास्तविक प्रकृति से परिचित हो तो कहा जा सकता है कि उसे जगत का ज्ञान है। ज्ञान: अंग्रेजी भाषा के 'Knowledge' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जिसका अर्थ मनुष्य में चेतना वृद्धि के प्रकट होने से लगाया जाता है। ज्ञान किसी वस्तु के सम्बन्ध में जानकारी है। निरपेक्ष सत्य की स्वानुभूति ही ज्ञान है। यह प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख इत्यादि भावों से निरपेक्ष होता है। ज्ञान दैनन्दिन और वैज्ञानिक दोनों हो सकता है। यह भी सत्य है कि ज्ञान का क्षेत्र केवल दर्शन तक सीमित नहीं है, अपितु कई दार्शनिकों ने जगत की विविध वस्तुओं को अज्ञान कहकर पुकारा है। भिन्न-भिन्न विज्ञान विषय से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न वस्तुओं, घटनाओं तथा जीवों के सम्बन्ध में ऐसी जानकारी देते हैं जो उनकी यथार्थ प्रकृति के अनुरूप मानी जाती है। यह ज्ञान वैज्ञानिक ज्ञान है। ज्ञान की प्रकृति अज्ञान से उसकी तुलना करने पर ज्ञात होती है। यदि किसी व्यक्ति को जीवशास्त्र के नियम नहीं ज्ञात होते हैं तो कहा जा सकता है कि उसे जीवाश्म विषय का कोई ज्ञान नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि प्राणी को जिस चीज का अनुभव होता है उसे उस विषय का ज्ञानी माना जाता है। अतः ज्ञान का अभिप्राय अनुभव से भी है। जैसा कि ज्ञात है कि अनुभव के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है।
       ज्ञान क्या है? इस प्रश्न का सीधा-साधा उत्तर देना सम्भव नहीं है क्योंकि इसका उत्तर देने के अनेक और विभिन्न प्रकार हो सकते हैं। 'ज्ञान' शब्द का अर्थ सभी प्रकार के बोध से है कि क्या सत्य है और क्या असत्य है ? अधिकतर बौद्ध अध्ययन शाखाएँ और कुछ अन्य दार्शनिकों का मत है कि ज्ञान का सत्य उसकी व्यावहारिक उपयोगिता में निहित है। अपने-अपने तरीकों से इन दार्शनिकों ने बोध के सत्य को उसकी उपयोगधर्मिता में निहित माना। आदर्शवाद चेतना को ज्ञान की संज्ञा देता है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से परे अनुभूतियों से सम्बन्धित है, जबकि प्रकृतिवाद और प्रयोजनवाद ज्ञानेन्द्रियों के प्रत्यक्षीकरण को ही ज्ञान मानते हैं। यथार्थवादियों का कहना है कि ज्ञान वह है जो उस जगह पर किसी वस्तु के अस्तित्व का हमें भान कराता है, जिससे हमें किसी वस्तु के ऐसे गुण । के बारे में पता चलता है जो उसमें सचमुच निहित है।
        कुछ दार्शनिकों का मत है कि सत्य दरअसल अनुभव योग्यता में निहित है। उनका मानना है कि सच्चा ज्ञान वही है जो अन्य अनुभवों के तदनुरूप हो अर्थात् यह अन्य अनुभवों से सामन्जस्यपूर्ण हो। अद्वैत वेदान्त का कहना है: कि ज्ञान की प्रभावशीलता उसकी अकाट्यता में निहित है। ज्ञान की सत्यता वह है जिसे उत्तरवर्ती ज्ञान झूठा सिद्ध न कर सके। वैसे तो ज्ञान की परिभाषा देना अत्यन्त दुरूह कार्य है फिर भी कुछ विद्वानों, मनीषियों तथा धर्मग्रन्थों आदि के आधार ज्ञान के विषय में कही गई बातों को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है-
 1. उपनिषद् के अनुसार, “ज्ञान गूढ़ तथा रहस्यमय है, इसलिए ज्ञान उसी को प्रदान किया जाना चाहिए जो ज्ञान प्राप्त करने का पात्र हो। "


2. सुभाषित रत्न संग्रह के अनुसार, "ज्ञानम् मनुजस्य तृतीय नेत्रम्" अर्थात् ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है।


 3. गीता के अनुसार, "सर्वभूतेषु येनैकं भावमण्य यमीक्षते अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विधि सात्विकम् ॥"
अर्थात् : जिसके द्वारा सभी प्राणियों में केवल एक निर्विकार भाव देखा जाता है तथा विविधता में जहाँ एकता दिखाई देती है, उसी को सात्विक ज्ञान कहा जाता है।


4. अद्वैत वेदान्त के अनुसार, "ज्ञान की सत्यता वह है जिसे उत्तरवर्ती ज्ञान झूटा सिद्ध न कर सके।" 


5. रामानुज के अनुसार, "ज्ञान तो आत्मा का आवश्यक गुण है।"


 6. योगवशिष्ट के अनुसार, “अत्रतज्ञानमनुष्ठान न त्वन्य दुपयुज्यते।"
अर्थात् मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान ही एकमात्र उपाय है, दूसरा और कोई नहीं।


 7. अमरकोश के अनुसार, “ ज्ञान वह है जो मनुष्य को उन्नत करता है तथा मुक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।"


 8. तर्क कौमुदी के अनुसार, "अर्थ प्रकाशो बुद्धि।" अर्थात् वस्तु के प्रकाश में ही ज्ञान निहित है। 


9. शून्यवादी मत के अनुसार, " ज्ञान न तो द्रव्य है, न गुण और न क्रिया, यह शून्य है। पर शून्यता अभाव नही है, यह वाणी के परे हैं।" 


10. बेकन के अनुसार, "ज्ञान ही शक्ति है।"


11. गीता के अनुसार, "ज्ञान बहुमूल्य रत्नों से भी अधिक मूल्यवान  है।"