बौद्ध दर्शन में ज्ञान की अवधारणा (Concept of Knowledge in Buddhism)


 


बौद्ध दर्शन में ज्ञान की अवधारणा 

           बौद्ध दर्शन न तो केवल भौतिकवादी दर्शन है और न केवल आध्यात्मिक इसने मध्यम प्रतिपदा सिद्धान्त को अपनाया। एक दर्शन के रूप में इसके कई सिद्धान्त उपनिषदीय दर्शन से बड़ा मेल खाते हैं और इसके कुछ सिद्धान्त उपनिषद् के एकदम विरोधी हैं। बौद्ध दर्शन नैतिक जीवन का दर्शन है।

       बुद्ध के धर्म सिद्धान्त और ज्ञान दर्शन की आधारशिला नैतिकता थी। बौद्ध त्रिपिटक में बौद्ध धर्म की चिन्तन पद्धति का सविस्तार वर्णन है। बुद्ध के दर्शन सिद्धान्त में चार आर्य सत्य का प्रधान योग है। जीवन में दुःख की अपरिहार्यता से उनके दर्शन का प्रारम्भ हुआ, जो आर्य सत्य था। वस्तुत: कुछ ने दुःख को आर्य सत्य के अन्तर्गत रखा। बौद्ध दर्शन विशेष रूप से दुःखवादी है। बौद्ध दर्शन के अनुसार जीवन में दुःख है और शिक्षा इन दुःखों को दूर करने का मार्ग बतलाती है। बौद्ध दर्शन के आधार चार आर्य सत्य हैं, जो निम्नलिखित हैं-

(1) दुःख    

(2) दुःख समुदाय

(3) दुःख निरोध

(4) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा 


1. दुःख - प्रथम आर्य सत्य दुःख है। संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख है। जीवन दुःखों एवं कष्टों से परिपूर्ण है। स्वयं महात्मा बुद्ध का कहना था जन्म भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, अप्रिय मिलन भी दुःख है, प्रिय वियोग भी दुःख है. जरा भी दुःख है, इच्छित वस्तु की अप्राप्ति भी दुःख है। बुद्ध ने उपदेश देते हुए भिक्षुओं से कहा कि, “शिशुओ चिरकाल तक माता के मरने का दुःख सहा है, लड़की के मरने का दुःख सहा है, रिश्तेदारों के मरने का दुःख सहा है, सम्पत्ति के विनाश का दुःख सहा है, रोगी होने का दुःख सहा है। उन माता के मरने का दुःख सहने वालों ने पिता के मरने का दुःख सहने वालों ने रिश्तेदारों के मरने का दुःख सहने वालों ने संसार में बार-बार जन्म लेकर प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में रो-पीटकर जो आँसू बहाए हैं, वे ही अधिक हैं, इन चारों महासमुद्रों का जल नहीं।"

 

2. दुःख समुदाय - बुद्ध द्वारा बताया गया दूसरा आर्यसत्य समुदाय है। बुद्ध के अनुसार दुःख समुदाय ही दुखों का मूल कारण है। दुःख का मूल कारण अविधा (अज्ञान) है। अज्ञानता से तृष्णा आती है और तृष्णा से दुःख उत्पन्न होता है। तृष्णा एक और अविधा पर आधारित है तो दूसरी और सुख की इच्छा पर आधारित है। बौद्ध साहित्य में कहा गया है-

  इमस्मि सति इदं होति इमस्म उत्पादा इदं उपज्जति       इमस्मि असति इदं न होति इमस्म निरोधा इंद निरुज्झति॥

अर्थात् "इसके होने पर यह होता है, इसके उत्पाद से यह उत्पन्न होता है, इसके न होने पर यह नहीं होता, इसके निरोध से यह निरुद्ध हो जाता है।" महात्मा बुद्ध को यह विश्वास था कि एक के होने पर दूसरे की उत्पत्ति होती है। उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। अतः दुःख का भी कारण है क्योंकि कोई भी वस्तु बिना कारण के नहीं हो सकती। दु:ख के इन कारणों को महात्मा बुद्ध ने द्वादश निदान अथवा प्रतीत्यसमुत्पाद को संज्ञा से विश्रुत किया है। बुद्ध ने कहा कि दुःख की उत्पत्ति का एक ही कारण नहीं, बल्कि कारणों की एक लम्बी श्रृंखला है। इसी श्रृंखला को द्वादश निदान कहते हैं। ये निदान अधोलिखित हैं -


(i) अविद्या

(ii) संस्कार

(iii) विज्ञान

(iv) नामरूप

(v) पडायतन

(vi) स्पर्श

(vii) वेदना

(viii) तृष्णा

(ix) उपादान

(x) भव

(xi) जाति

(xii) जरा-मरण

           दुःख का मूल कारण अविद्या है। अविद्या से बुरी प्रवृत्तियाँ पैदा होती हैं जिन्हें संस्कार कहते हैं। संस्कार, विज्ञान की रचना करता है। विज्ञान के कारण गर्भ में शरीर की रचना होती है जिसे नामरूप कहते हैं। शरीर के बनने से छ: इन्द्रियों का उदय होता है, जिन्हें पडायतन कहते हैं। इन्द्रियों का सम्पर्क वस्तुओं से होता है, जिसे स्पर्श कहा जाता है। स्पर्श से इन्द्रिय सुख उत्पन्न होता है, जिसे वेदना कहते हैं। इन्द्रिय सुख से उपभोग की इच्छा बलवती होती. है, जिसे तृष्णा कहते हैं। तृष्णा आसक्ति जगाती है, जिसे उपादान कहते हैं। उपादान से जन्म लेने की प्रवृत्ति उत्पन्न होता है, जिसे भव कहते हैं। भव, जाति का कारण है। जाति (जन्म) से हो व्यक्ति दुःखों के भँवर में फंस जाता है और जब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती तब तक जरा मरण के भव चक्र में फंसा रहता है। दुःख के कारण ये बारह सोपान या निदान हैं। इन्हें तीनों काल के अन्तर्गत इस प्रकार रखा जा सकता है। 

अतीत काल - अविद्या, संस्कार

वर्तमान काल - विज्ञान, नामरूप, पडायतन, स्पर्श, वेदना,                       तृष्णा, उपादान

भविष्य काल - भव, जाति, मरण 

                   इस प्रकार जन्म, जरा, सुखभोग की कामना, भौतिक पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा आदि ही दुःख का कारण है। तृष्णा, स्पृहा, कामना, इच्छा आदि दुःख समुदाय में समाहित हैं। 

3. दुःख निरोध - तीसरा आर्य सत्य दुःख निरोध है। बुद्ध का विश्वास था कि दुःखों का निरोध सम्भव है। चूँकि दुःख का उद्भव तृष्णा (इच्छा) और अज्ञान से होता है, इसलिए तृष्णा और अज्ञान का अन्त आवश्यक है। सांसारिक आकांक्षाओं का त्याग और अवरोध ही 'दुःख निरोध' के अन्तर्गत गृहीत किया गया है। बुद्ध के ही शब्दों में इदं खो पन, भिक्खवे, दुःख निरोधो अरियसच्चं यो तस्सा येव तन्हाय असेस विराग निरोधो चागो पटिनिस्सगो, रजो कि, मुक्ति अनालयो।" अर्थात् “हे भिक्षुओं, दुःख निरोध आर्य सत्य है जो इस तृष्णा का ही अशेष विराम निरोध, त्याग,प्रतिनिस्सर्ग और तोड़ना है।" बुद्ध के अनुसार संसार में भी कुछ भी प्रिय लगता है, संसार में जिससे हम मिलता है। ओ जो भी भ्रमण-दुःख रूप समझेंगे, रोग रूप समझेंगे, उससे डरेंगे, वे ही तुष्णा को छोड़ को समझाते हुए उन्होंने कहा कि रूप वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान का अवरोध ही दुःख निरोध है।


4. दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा - यह चौथा आर्य सत्य है। यह दुःख विरोध तक पहुँचाने का मार्ग है। दुख से मुक्ति पाने के लिए किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ता कृष्णा और अनमिनोवृत्तियों और स्थान से कैसे मुक्ति मिलनी चाहिए, इसे आर्य सत्य के अन्तर्गत प्रतिपादित किया गया है। बुद्ध का विचारा सुख-दुःख किसी भी अति के मार्ग को अपनाने से दुआ से मुक्ति नहीं मिल सकतीमुक्त के पहुँचने के लिए बुद्ध ने घोर तपस्या और कठोर काया क्लेश की साधना को त्याग कराउपदेश प्रदान किया जिसे मध्यम मार्ग कहते हैं। बुद्ध ने दुःखों से मुक्ति या निरोध के लिए आठ मार्ग बतलाए

                आष्टांगिक मार्ग के विषय में बुद्ध आनन्द से कहते हैं कि "है आनन्द। इस समय मैंने भी यह कल्याणवतां स्थापित किया है जो; एकान्त निर्वेद के लिए, विराग के लिए, निरोध के लिए, उपारम के लिए, अभिज्ञा के लिए, सम्बोधि के लिए और निर्वाण के लिए यहाँ आष्टांगिक मार्ग है।" आर्य आष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित है-

(1) सम्यक् दृष्टि

(2) सम्यक संकल्प

(3) सम्यक वाक्

(4) सम्यक् कर्मान्त

(5) सम्यक् आजीव

(6) सम्यक व्यायाम

(7) सम्यक् स्मृति

(8) सम्यक समाधि


1.सम्यक् दृष्टि -  इसका तात्पर्य वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप से ध्यान लगाना है। बुद्ध के अनुसार नौर-शीर-विवेको दृष्टि से सम्यक दृष्टि है जिससे सत्य-असत्य, सदाचार-दुराचार, पुण्य पाप और उचित-अनुचित का अन्तर किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत ज्ञान प्राप्ति के फलस्वरूप शिक्षित व्यक्ति वस्तुओं के स्वरूप को पहचान लेता है क्योंकि अविद्या के कारण इस जगत तथा आत्मा के सम्बन्ध में मिया दृष्टि उत्पन्न होती है।


2. सम्यक संकल्प: आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना सम्यक संकल्प है। इसके अन्तर्गत दूसरों के प्रति द्वेष, त्याग, सांसारिक विषयों के प्रति विरक्त भाव हिंसा का त्याग करना चाहिए। इसी का नाम सम्यक संकल्प है।


3. सम्यक् वाक् - अप्रिय वचनों के सर्वथा परित्याग को सम्यक वाक् कहते हैं। इसमें शिक्षित व्यक्ति को किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए, अप्रिय तथा मिथ्या वाणी का व्यवहार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार संयमित वाणी का व्यवहार हो सम्यकता है। 

4. सम्यक् कर्मान्त - सम्यक कर्म का अर्थ है ठीक कार्य अथवा यथार्थ कार्य कर्मों पर ही सत्व निर्भर है। जिसके जैसे कर्म होंगे वैसे ही उसकी गति होगी। अतः साधक को उचित कर्म करना चाहिए और बुरे कर्मों से दूर रहना चाहिए। दया, दान, सत्व, अहिंसा आदि सत्कर्मों का अनुसरण ही सम्यक् कर्मान्त है। 

5. सम्यक् आजीव - सदाचार के नियमों के अनुकूल आजीविका का अनुसरण करने को सम्यक् आजीव कहते हैं। अर्थात् शिक्षित व्यक्ति को शुद्ध उपाय से अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करना चाहिए। अतः न्यायपूर्ण एवं उचित आधार पर जीवनयापन करना ही सम्यक आजीव कहलाता है।


6. सम्यक् व्यायाम : नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत् प्रयत्न करना ही सम्यक व्यायाम है। सम्यक् व्यायाम के अन्तर्गत बुराइयों को समाप्त कर अच्छे कार्यों और उपकार के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा जाता है। यह चार प्रकार का होता है- अनुत्पन्न अकुशल कर्मों को उत्पन्न न करना, अनुत्पन्न कुशल कर्मों को उत्पन्न करना, उत्पन्न अकुशल कर्मों को प्रहाण करना, उत्पन्न कुशल कर्मों का संरक्षण करना।

7. सम्यक स्मृति - अपने विषय में सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का त्याग कर सच्ची भारणा रखना ही सम्यक स्मृति है अर्थात् शिक्षित व्यक्ति को अतीत की बातों को बारम्बार स्मरण करते रहना चाहिए, जिससे कि वह पुनः अज्ञान के अन्धेरे में भटक न जाए स्मृति जितनी दूढ़ होगी व्यक्ति उतना ही सावधान होगा।

8. सम्यक् समाधि - मन अथवा पित्त की एकाग्रता को सम्यक समाधि कहते हैं। अर्थात उपर्युक्त गुण जिस व्यक्ति के चरित्र अथवा जीवन के अंग बन जाते हैं, यह सम्यक समाधि में प्रवष्टि होने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। समाधि सभी धर्मों में श्रेष्ठ है। व्यक्ति सभी संस्कारों का शमन तृष्णा का विनाश करके समाधि के द्वारा निर्वाण प्राप्त कर सकता है।