ज्ञान का स्वरूप (Nature of Knowledge)


 

ज्ञान का स्वरूप 

                                         ज्ञान को मानव का वास्तविक शक्ति माना गया है। वास्तविक वस्तु वह है जो सदैव रहने वाली हो। केवल ज्ञान ही ऐसा मूल तत्त्व है जो कहीं भी, किसी अवस्था में और किसी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता। वास्तविक ज्ञान ही जीवन का सार और आत्मा का प्रकाश है। ज्ञान की प्रकृति अज्ञान से तुलना करने पर ज्ञात होती है। ज्ञान की प्रकृति ऐसी है जो अपनी वस्तु के साथ स्वयं प्रकाशित होती है। ज्ञान के स्वरूप में मुख्यतः तीन तत्व सम्मिलित होते हैं -

 1. विचार: ज्ञान विचारों के रूप में मन में रहता है। वह विचार ही संकल्प बनकर कार्य के रूप में परिणत होते हैं।

2. प्राकृतिक : ज्ञान कहलाने वाले विचारों का वस्तुओं, जीवों, संक्षिप्त में ज्ञान की विषय वस्तु की वास्तविक प्रकृति के अनुरूप होना जरूरी है। ये विचार ज्ञान न कहलाकर अज्ञान कहलाते हैं।

 3. यथार्थता: वैसे तो हमारे पास यह ज्ञात करने का कोई साधन नहीं है कि बाहरी वस्तुओं, घटनाओं या जीवों की यथार्थता प्रकृति के अनुरूप है। किसी विचार को ज्ञान कहने से हम विश्वास कर लेते हैं कि हमारा विचार यथावत है। ऐसा न होने पर वह ज्ञान नहीं कहलाता। अतएव जब तक यथार्थ अनुभव में हमारे विचार का खण्डन ही न हो जाए अर्थात् वह गलत ही साबित न हो जाए तब तक हम उसे ज्ञान ही मानते हैं। ज्ञान मुख्यतः दो तरह का माना गया है

1. प्रत्यक्ष ज्ञान: यह वह ज्ञान है जिसके माध्यम से हमें वस्तु का सीधा ज्ञान होता है। हमारी आँख, नाक, कान, त्वचा, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान इसी तरह का होता है। हमें जो वस्तु जैसी दिखती है हम उसे वैसा ही मान लेते हैं क्योंकि यह प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का होता है-पहला बाह्य प्रत्यक्ष, जो बाहरी वस्तुओं का ज्ञान है और दूसरा आन्तरिक पक्ष, जिससे सुख-दुख इत्यादि आन्तरिक अनुभूतियों तथा मनोवृत्तियों का ज्ञान होता है। अत: आन्तरिक प्रत्यक्ष द्वारा हम अपने संवेग, अनुभूतियों, मानसिक दशाओं, स्थाय भावों, संकल्पों, इच्छाओं आदि मानसिक प्रक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

 2. अप्रत्यक्ष ज्ञान : ज्ञान के इस रूप में अनुमान या साक्ष्य का प्रयोग किया जाता है। यह ऐसा ज्ञान है जोकि वस्तुओं से सीधे सम्पर्क न होकर किसी दूसरे के द्वारा ज्ञात है। यह ज्ञान भी दो प्रकार का होता है पहला अनुमान–इसमें ज्ञात से अज्ञात तक पहुँचने हेतु अनुमान का सहारा लिया जाता है। अनुमान की प्रक्रिया ओर पहुँच जाता है। उदाहरणार्थ-बहुत से स्थानों पर धुएँ के साथ आग देख कर यह ज्ञात हो जाता है कि जहाँ धुआँ है, वहाँ आग होगी। इसके विपरीत निगमनात्मक ज्ञान सामान्य सिद्धान्त से अज्ञात विशेष तथ्य के सम्बन्ध में अनुमान लगाया जाता है। उदाहरणार्थ अगर हमें यह ज्ञात है कि जहाँ धुआँ होता है वहाँ आग होती है तो किसी पहाड़ी पर धुआँ देखकर अनुमान के द्वारा यह जान हो जाता है कि पहाड़ी पर धुआँ है, इसलिए वहाँ आग भी होगी। दूसरा अप्रत्यक्ष ज्ञान है साक्ष्य- इसमें आप्त पुरुषों द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। आप्त पुरुष वे हैं जिनके अनुभव के कारण ही हम उन्हें विश्वास के योग्य मानते हैं। उदाहरणार्थ- गुरुजन तथा माता-पिता आप्त पुरुष मान जाते हैं। विद्वानों द्वारा लिखी गई पुस्तक से प्रमाण दिए जाते हैं। इसलिए विद्वान होने के नाते वे आप्त पुरुष माने जाते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान के मुख्य स्वरूप दो हैं, उसके नाम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं जैसे- सत्य ज्ञान और मिथ्या ज्ञान हम ज्ञान के तीनों तत्त्वों-विचार, प्राकृतिक और यथार्थता से ज्ञान और अज्ञान के बारे में जान सकते हैं। इन्हीं तत्त्वों के माध्यम से ही हम ज्ञान को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में जान सकते हैं, क्योंकि बिना इन तत्त्वों के जीवन भी सम्भव नहीं है। अतः हम कह सकते हैं कि ज्ञान की वास्तविक प्रकृति वैध और अवैध ज्ञान में भेद करना है और इसको हम ज्ञान के दो रूपों प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा ही जान सकते हैं।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर ज्ञान की 'प्रकृति' के विषय में निम्नलिखित तथ्य उजागर होते हैं

 (i) निरपेक्ष सत्य की स्वानुभूति ही ज्ञान का सार है। ज्ञान दैनन्दिन और वैज्ञानिक दोनों हो सकता है।

(ii) वह विचार जो चिन्तन की विषय वस्तु की वास्तविक प्रकृति के अनुरूप हो, ज्ञान कहलाता है। 

(iii) ज्ञान का अर्थ सभी प्रकार के बोध से है कि क्या सत्य है और क्या असत्य है?

(iv) ज्ञान प्रिय अप्रिय, सुख-दुःख इत्यादि भावों से निरपेक्ष होता है। 

(v) ज्ञान की प्रकृत्ति अज्ञान से उसकी तुलना करने पर ज्ञात होती है।

(vi) ज्ञान के मुख्यत: दो पक्ष होते हैं- प्रत्यक्ष ज्ञान और अप्रत्यक्ष ज्ञान जिस माध्यम से हमें वस्तु का सीधा ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है तथा जिस ज्ञान में अनुमान या साक्ष्य का प्रयोग किया जाता है। वह अप्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है।

(vii) ज्ञान का अभिप्राय अनुभव से भी लगाया जाता है क्योंकि अनुभव के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है। 

(viii) ज्ञान की विषय-सामग्री बहुत व्यापक होती है, उसे सीमा में नहीं बाधा जा सकता।

 (ix) व्यापक अर्थ में ज्ञान निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, इसे व्यापक रूप में ही लिया जाना चाहिए।

(x) ज्ञान की विषय सामग्री अति व्यापक है, यह विकासोन्मुखी होते हैं, इसकी प्रकृति गतिशील होती है।