ओजोन पर्त का विघटन (Depletion of Ozone Layer)


 


   ओजोन शब्द यूनानी भाषा के 'ओजो' से बना है जिसका अर्थ 'गन्ध' होता है। ओजोन एक प्रकार की गैस है। ओजोन गैस का सर्वप्रथम उल्लेख जर्मन वैज्ञानिक स्कान वेन ने किया। यह गैस ऑक्सीजन के समान है। इस गैस में विशेष प्रकार की गन्ध होने के कारण इसे ओजोन गैस कहते हैं। ऐसी ही गन्ध उच्च बोल्टेज वाले विद्युत के तारों के निकट खड़े होकर अनुभव की जा सकती है। वायुमण्डल में ओजोन गैस का निर्माण फैक्टरी में होने वाले गैस उत्पादन के समान होता है। सूर्य ही इस गैस के उत्पादन के लिए उत्तरदायी है। सूर्य विकिरण वायुमण्डल के ऑक्सीजन पर पड़ते ही यह ऑक्सीजन ओजोन गैस में बदल जाती है। वायुमण्डल में इस गैस की मात्रा का अनुमान सर्वप्रथम फ्रांसीसी वैज्ञानिक चार्ल्स ने किया था। "ओजोन हमारी प्राण वायु ऑक्सीजन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रूप है। ऑक्सीजन के तीन से ओजोन का निर्माण होता इस गैस का इतना महत्त्व है कि इसे पृथ्वी का रक्षा कहा गया है। यह गैस एक परत के रूप में स्ट्रेटोस्फीयर (समताप मण्डल) में समुद्र तल से 23 से 30 किमी तक की ऊँचाई पर सघन रूप में पाई जाती है। यह वस्तुतः एक रक्षा कवच के रूप में कार्य करती है और सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से पहले ही सोख लेती है। पराबैगनी किरणे इतनी हानिकारक होती हैं कि इससे त्वचा कैंसर होने का खतरा रहता है। इस परत की महत्ता इस बात से लगाई जा सकती है कि यदि ओजोन परत वायुमण्डल में न होती तो पृथ्वी पर जीवन असम्भव होता।

         वायुमण्डल में ओजोन का निर्माण एक स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रतिक्रिया है। जब सूर्य की किरणें वायुमण्डल की ऊपरी सतह से टकराती हैं, तो उच्च ऊर्जा विकिरण से ऑक्सीजन (O) का कुछ भाग ऑक्सीजन (O) से मिलकर ओजोन (O) में बदल जाता है। यद्यपि ओजोन परत में अल्पता के विषय में जानकारी 1960-70 के दशक में प्राप्त हो गई थी लेकिन विश्व में अंटार्कटिका महाद्वीप के ऊपर ओजोन पर्त में बढ़ता हुआ छिद्र वर्ष 1985 से ही चिन्ता का विषय बना हुआ है। औजोन पर्त में होने वाली अल्पता का प्रत्यक्षदर्शी प्रमाण ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉ० फारमैन ने प्रस्तुत किया था। जहाँ तक वायुमण्डल में ओजोन की मात्रा का भाग है तो बता दें ओजोन की मात्रा लगभग 10 PPM अर्थात् 10 लाख वायु परिमाण में 10 भाग है और सम्पूर्ण पृथ्वी पर हानिप्रद किरणों को वायुमण्डल से ऊपर ही रोके रखने का कार्य एक निश्चित क्रिया के अनुसार करती रहती है।


ओजोन पर्त में क्षरण के कारण 

      सामान्यतः किसी भी कारणवश ओजोन पर्त में जितना भी क्षरण होता है प्रकृति उसका उतना निर्माण कर देती है लेकिन बढ़ते हुए आधुनिकीकरण, औद्योगिकीकरण और नगरीकरण के कारण अि रसायनों की पर्यावरण में वृद्धि हो रही है जो कि ओजोन पर्त के लिए अत्यन्त खतरनाक है। हमने अपने सुख साधन के लिए औद्योगिक क्षेत्रों में ओजोन आवरण को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाने वाली गैसों-क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स, नाइट्रोजन ऑक्साइड, मिथाइल ब्रोमाइड, ज्वालामुखी से निकली क्लोरीन गैस का उपयोग करना शुरु कर दिया। इन गैसों में सर्वाधिक हानिकारक क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (CFCs) गैस है जिसका औद्योगिक क्षेत्रों में सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स का उपयोग शीत उपकरणों; जैसे-एअरकण्डीशनर, रेफ्रीजरेटर, एअर सोल स्प्रे तथा वायु विलय पेण्ट तैयार करने, उर्वरक का निर्माण करने वाले कारखानों में प्लास्टिक पैन तैयार करने में अधिक किया जाता है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स का एक गुण धर्म यह भी है यह एक बार वायुमण्डल में छोड़े जाने पर नष्ट नहीं होती, यह सीधे वायुमण्डल पर हमला कर उसे प्रदूषित कर देती है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स में उपस्थित क्लोरीन ओजोन को ऑक्सीजन में विघटित कर देती है। इससे सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों (Ultra-violet Rays) को वायुमण्डल में प्रवेश का अवसर मिल जाता है। शीत युद्धों के सुपरसोनिक विमान तथा हवाई जहाज भी इस खतरनाक गैस के उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं। अमेरिका द्वारा पूर्व में चलाए जाने वाले 'कान्कोर्ड वायुयान' की अत्यन्त तेज चाल और तेज ध्वनि से ओजोन पर्त के विघटन की आशंका हो गई थी, जिस पर मानव हित को ध्यान में रखते हुए प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इस प्रकार प्राविधिक और औद्योगिक उन्नति के परिणामस्वरूप प्राकृतिक असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस सम्बन्ध में पार्सन की अत्यन्त समीचीन प्रतीत होती है, "अद्यतन आर्थिक मानव वर्ग प्राकृतिक संसाधनों का विनाशक है। विनाश की तुलना में उसके कार्य अत्यल्प हैं।" वर्तमान समय में स्थानीय, क्षेत्रीय, प्रादेशिक राष्ट्रीय औद्योगिकीकरण के कारण ऊर्जा की माँग दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है, नगरीकरण के कारण वनों का विनाश होता जा अनेक कारणों से आज हम अनेकों प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं से ग्रसित हैं।


ओजोन गैस की कमी के कारण

   ओजोन गैस की कमी के लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं, जो निम्नलिखित हैं - 

प्राकृतिक कारक: जब क्लोरीन ओजोन को तोड़ देता है उसके बाद भी क्लोरीन का परमाणु शान्त नहीं बैठता। वह मुक्त होने के बाद पुन: बार-बार ओजोन पर प्रहार करता रहता है। वैज्ञानिकों के अनुसार क्लोरीन का एक मुक्त कण लगभग एक लाख ओजोन अणुओं को विघटित कर सकता है। मन्दाकिनीय कॉस्मिक किरणें और प्रोटॉन विसर्जित होकर समतापमण्डल तथा मध्यमण्डल में प्रवेश करती हैं तो वहाँ उपस्थित नाइट्रोजन का विखण्डन करके नाइट्रिक एसिड के रूप में ओजोन मण्डल को प्रदूषित कर देती हैं। 

मानवीय कारक : औद्योगिक कारखानों, उद्योगों तथा वैज्ञानिकों द्वारा रसायनों के विविध उपयोग से वायुमण्डल में इतने रसायन व गैसें प्रवेश कर रही हैं कि वे ओजोन पर्त में छिद्र कर डाल रही हैं। इनमें सबसे खतरनाक क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स गैस है। ये रसायन वायुमण्डल में 50 से 100 वर्ष तक विद्यमान रहते हैं। ये ओजोन मण्डल के लिए सबसे बड़ी हानिकारक गैस है। मानव द्वारा संचालित जैट वायुयान में जलने वाले ईंधन से नाइट्रिक ऑक्साइड निकलती है, जिससे ओजोन को हानि पहुँचती है। इसी प्रकार मानव द्वारा उत्पादित उर्वरक के निर्माण में नाइट्रोजन का प्रयोग होता है जो ओजोन पर्त के लिए हानिकारक है।


ओजोन पर्त के विघटन से सम्भावित दुष्प्रभाव

     विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक समस्याओं के कारण पृथ्वी पर जो पर्यावरण असन्तुलन की स्थितिः बनती जा रही है अगर इनके दुष्प्रभावों से बचना है तो इनके बारे में ज्ञान होना परम आवश्यक है। वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध और परीक्षणों से पता चलता है कि ओजोन की एक प्रतिशत कमी से पृथ्वी पर तीन प्रतिशत अधिक पराबैंगनी किरणें पहुँचेगी। इससे लगभग 2% लोगों में त्वचा कैंसर का खतरा बढ़ जाएगा। कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि ओजोन पर्त में यदि 10% की कमी आ जाए तो सम्पूर्ण संसार में 16 से 17 लाख आँख रोगियों और लगभग तीन लाख त्वचा रोगियों की बहुत ही कम समय में वृद्धि हो जाएगी। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अनुसार यदि ओजोन पर्त में 5% की कमी आ जाए तो केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ही लगभग 40,000 त्वचा रोगी बढ़ जाएँगे। ओजोन पर्त के क्षीण होने से जो पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँचेंगी वह मनुष्य में रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देंगी जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ का पदार्पण प्रारम्भ हो जाएगा। इन पराबैंगनी किरणों का हानिकारक प्रभाव केवल मनुष्य पर ही नहीं अपितु समुद्री जीव-जन्तुओं, कृषि और वनस्पतियों पर भी पड़ता है। समुद्री जीवों पर पड़ने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणें मछलियों के मुख्य खाद्य पदार्थ फाइटोप्लेकटन के उत्पादन में भारी कमी आ जाती है और मछलियों और समुद्री जीवों की संख्या में काफी कमी आने लगती है।इसी प्रकार से 250 से 350 एन०एम०एस० तरंगदैर्घ्य वाली पराबैंगनी किरणें U.B.B. सबसे अधिक वनस्पतियों, फसलों और मानसून को प्रभावित करती हैं। इनके कारण वनस्पतियों और फसलों में होने वाली प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

   ओजोन पर्त के क्षरण या विघटन से अनेक प्रकार के दुष्प्रभाव मानव जीवन एवं उनसे सम्बन्धित क्रिया-कलापों पर पड़ सकते हैं, इसे निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है:-

(i) मनुष्य में कई प्रकार के रोग होने लगते हैं। जैसे-त्वचा कैंसर, आँखों में मोतियाबिन्द, इम्यून सिस्टम का बिगड़ना आदि। 

(ii) इससे मनुष्य में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।

(iii) इससे अनेक समुद्री जीव-जन्तुओं के समाप्त होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है, समुद्री वनस्पतियों और जलचरों के समाप्त होने की आशंका बनी रहती है।

(iv) इससे वनस्पतियों, फसलों और मानसून पर प्रभाव पड़ने की सम्भावना रहती है। फसलों की मात्रा और गुणवत्ता में कमी होने की आशंका विद्यमान हो जाती है।

(v) इससे धुएँ, विषैली गैस (स्मोग) आदि के बनने की सम्भावना रहती है। 

(vi) इमारतों और भवनों के क्षयीकरण की सम्भावना रहती है।


ओजोन पर्त को बचाने हेतु प्रयास 

    ओजोन पर्त का विघटन बहुत बड़ी तथा जनसाधारण लोगों से जुड़ी 'विश्वस्तरीय' समस्या है, जिसके भविष्य में बहुत गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। पूरे विश्व में समस्त प्राणियों के अस्तित्व एवं सन्तुलित विकास के लिए ओजोन पर्त के संरक्षण के उपाय पर सभी लोग एकमत हैं। इस समस्या से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास वर्ष 1985 से ही वियना समारोह आस्ट्रिया से प्रारम्भ किए गए। जहाँ पर ओजोन पर्त के संरक्षण पर विशद चर्चा हुई। वर्ष 1987 में मॉन्ट्रियल (कनाडा) में एक बार फिर एक सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें एक दस्तावेज तैयार किया गया जिसको मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के नाम से प्रचारित प्रसारित किया गया। लेकिन इस प्रोटोकॉल को स्वीकृति जून 1990 में मिली। भारत इस सम्मेलन में केवल प्रेक्षक की भूमिका में था परन्तु बाद में उसने भी प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर कर दिए। वर्ष 1989 में हेलेसिंकी (डेनमार्क) में 82 अन्य देशों के साथ सभी यूरोपीयन देशों ने ओजोन पर्त को बचाने और सुरक्षित रखने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन कर समयबद्ध कार्यक्रम तैयार किया, जिससे क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (CFC's) के उत्पादन और प्रयोग को रोका जा सके। भारत द्वारा इस प्रोटोकॉल पर नवम्बर, 1992 में हस्ताक्षर किए गए तथा इसे 17.09.1992 को अपने देश में लागू किया। भारत में ओजोन पर्त के क्षरण करने वाले पदार्थों के उत्पादन हेतु वर्ष 2000 से अनेक नियम बनाए गए जिन पर आज भी कार्य जारी है।

     ओजोन पर्त के संरक्षण हेतु अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास करने के साथ आज स्थानीय, क्षेत्रीय, सामुदायिक और सामाजिक स्तर पर जनसाधारण लोगों में जनजागरूकता लाने की आवश्यकता है। ओजोन पर्त के अस्तित्व की सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए विश्व जागरूकता उत्पन्न करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय ओजोन सुरक्षा दिवस या विश्व ओजोन दिवस प्रति वर्ष 16 सितम्बर को राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर मनाया जाता है। इसकी घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गई। जनसाधारण को इस समस्या से अवगत कराने के लिए अनेक सेमीनार, गोष्ठियाँ, सिम्पोजियम आदि आयोजित किए जाते हैं। भारत सरकार एवं पर्यावरण मन्त्रालय के स्तर पर वातिस (Vatis) नामक द्विमाही प्रत्रिका का प्रकाशन किया जाता है।

उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि ओजोन पर्त की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं -

(i) विभिन्न कारखानों और औद्योगिक इकाइयों द्वारा उत्सर्जित होने वाले रसायनों के प्रयोग में तेजी से कमी लाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

(ii) क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स नामक हानिकारक गैस को केवल विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाए। इसके अन्य विकल्पों का प्रयोग समुचित मात्रा में किया जाए।

(iii) विकसित देशों को चाहिए कि वे क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स का उपयोग कम करें या बन्द करें।

(iv) क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाले उपकरणों पर अधिक से अधिक कर लगाया जाए।

(v) इस दिशा में स्थानीय, सामुदायिक, राज्य और राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता फैलाई जाए, जिससे वे अपेक्षित प्रयास कर ओजोन पर्त के संरक्षण में अपना योगदान दे सकें।