जल प्रदूषण (Water Pollution )


जल प्रदूषण (Water Pollution )


          जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। जल प्रकृति द्वारा प्रदत्त वह संसाधन है जो ब्रह्माण्ड में सृष्टि को बनाए रखने में महत्वपूर्ण घटक की भूमिका निभाता है। Goeche के अनुसार, "प्रत्येक वस्तु जल से ही उत्पन्न हुई है और प्रत्येक वस्तु के द्वारा ही जीवित है।" वनस्पति से लेकर सारे जीव-जन्तु अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल के माध्यम से ही करते हैं। जल ही ऐसा संसाधन है जो प्रेस, द्रव तथा गैस तीनों रूपों में पाया जाता है। मनुष्य के शरीर में लगभग 65% जल विद्यमान होता है। यही नहीं मनुष्य की सम्पूर्ण क्रियाओं एवं उसके रखरखाव में जल की महती भूमिका होती है। यह उत्तक और पेशियों को घेरकर उन्हें आपस में चिपकने से रोकता है। यह हृदय, मस्तिष्क आदि को संरक्षण प्रदान करता है। यह शरीर के अन्दर विभिन्न संचार तत्त्वों को बनाए रखता है। यही पोषक तत्त्व, कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन या बाहक है, और शरीर के मलिन पदार्थों को मल, मूत्र और पसीना के माध्यम से बाहर निकालता है। इसी कारण पानी की कमी मनुष्य को सहन नहीं हो पाती है, इसकी कमी में अधिकता के कारण उसकी मृत्यु भी हो जाती है।

         मनुष्य, वनस्पति तथा जीव-जन्तु जिन पोषक तत्वों को ग्रहण करने से स्वस्थ रहते हैं उन पोषक तत्वों में सबसे अधिक अनिवार्य शुद्ध पेय जल है। शरीर की कार्यशीलता में ऊर्जा से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका जल की होती है क्योंकि जल स्वयं पोषक तत्त्व है लेकिन जनसंख्या वृद्धि और जल के घटते हुए स्रोतों के कारण जल की कमी महसूस की जाने लगी है। वर्ल्ड रिसोर्सेज के अनुसार विश्व स्तर पर 1990-95 के मध्य ही जल उपभोग में 6 गुनी वृद्धि हुई जो जनसंख्या वृद्धि से दो गुनी थी। कृषिगत, औद्योगिक एवं घरेलू उपभोग में तीव्र वृद्धि के चलते अभी वृद्धि दर बढ़ने की सम्भावना है। सतहगर जलागार-नदियाँ, झोलें वर्षा द्वारा आपूर्ति की अपेक्षा निष्कर्षण संकुचित हो रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि तथा आर्थिक, सामाजिक विकास से विशेषकर औद्योगिक एवं घरेलू उपयोग हेतु जल की माँग में तेजी से वृद्धि हो रही है। जलाभाव की स्थिति एवं मानव स्वास्थ्य की दयनीय दशा, विशेषकर तीव्र औद्योगीकरण वाले विकासशील देशों में, उपलब्ध जल के प्रदूषण से बदतर होती जा रही है। ऐसे देशों में इयूट्राफिकेशन से लेकर भारी धात्विक प्रदूषण, अम्लीकरण, दीर्घजीवी जैव प्रदूपांक जैसे आधुनिक प्रदूषण की समस्याएँ प्रखर हो रही हैं, जबकि परम्परागत समस्याएँ शुद्ध जलापूर्ति एवं शौच शुलभता का अभाव बना हुआ है। 

           प्रदूषित जल वह है जिसमें अनेक प्रकार के खनिज, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थों तथा गैसों के एक निश्चित अनुपात से अधिक अथवा अनावश्यक तथा हानिकारक पदार्थ घुल जाते हैं। 

      दूसरे शब्दों में जल की भौतिक, रासायनिक तथा जैविक संरचना में ऐसा परिवर्तन, जो मानव अथवा किसी प्राणी के जीवन दशाओं के लिए हानिकारक एवं अवांछित हो, जल प्रदूषण कहलाता है।

गिलपिन (1978) के अनुसार, "मानव क्रियाओं के फलस्वरूप जल के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों में लाया गया परिवर्तन जल प्रदूषण कहलाता है।" 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, "जब जल में भौतिक या मानवीय कारणों से कोई बाहरी या विजातीय पदार्थ मिलकर जल के स्वाभाविक या नैसर्गिक गुणों को परिवर्तित कर देते हैं, जिसका कुप्रभाव जीवों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। तो ऐसा जल प्रदूषित जल कहलाता है।" इन परिवर्तनों के कारण यह उपयोग में आने योग्य नहीं रहता है वैसे जल में स्वतः शुद्ध होने की क्षमता होती है, किन्तु जल शुद्धीकरण की गति से अधिक मात्रा में प्रदूषक जल में पहुंचते हैं तो जल प्रदूषित होने लगता है। यह समस्या तब पैदा है जब जल में जानवरों के मल, विषैले औद्योगिक रसायन, कृषि अवरोध, तैलीय और ऊष्मा जैसे मिलते हैं। इनके कारण ही हमारे अधिकांश जल भण्डार जैसे- समुद्र, नदी, झीलता भूमिगत जल -धीरे प्रदूषित होते जा रहे हैं।

 जल को स्वच्छता स्तर के अनुसार इसे निम्नलिखित प्रकार से विभक्त किया जा सकता है- 

1. स्वच्छ जल : वह जल जिसमें किसी प्रकार के हानिकारक पदार्थों का समावेश न हो।

2. सुरक्षित जल : यह जल जो गन्धरहित, पेय एवं पौष्टिक हो, जिससे किसी प्राणी के स्वास्थ्य पर कोई हानिकारक प्रभाव न पड़े।

3. संदूषित जल : ऐसा जल जिसमें सूक्ष्म कीटाणुओं का समावेश हो गया हो या जहरीले रासायनिक पदार्थों का मिश्रण हो गया हो।

4. प्रदूषित जल : ऐसा जल जिसमें निलम्बित पदार्थों की उपस्थिति के कारण रंग परिवर्तन हो गया। ये तथा उसमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो गई हो अर्थात् जिसका न सिर्फ जैविक एवं रासायनिक वरन भौतिक स्वरूप भी परिवर्तित हो गया हो।

जल की उपलब्धता :- भूमण्डल में जल का एक अक्षय भण्डर है। इसकी समृद्धता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह वायुमण्डल और स्थलमण्डल के मध्य एक आवरण की तरह पृथ्वी को सब तरह से घेरे हुए हैं। यह पूरी पृथ्वी का 7/10 भाग है और आयतन में लगभग 1400 मिलियन घन किमी है। इस पानी के पूरे आवरण को जलमण्डल कहते हैं। पृथ्वी की सतह का लगभग तीन-चौथाई तथा पूरे पानी की लगभग 97% मात्रा महासागर तथा समुद्रों में सिमटी हुई है तथा शेष 3% अलग-अलग रूप में अलग-अलग स्थानों पर है। 


जल प्रदूषण के प्रकार

जल में ऐसे अपद्रव्यों की उपस्थिति जिनसे पेय जल प्रदूषित हो जाए, की प्रकृति के अनुसार जल प्रदूषण को निम्न वर्गों में विभक्त किया सकता है -

1. भौतिक : जब भौतिक पदार्थों धूल, गन्दगी आदि की उपस्थिति इतनी मात्रा में हो जाए कि उसका रंग, गन्ध, स्वाद बदल जाए तो इसे भौतिक प्रदूषण कहते हैं। स्वच्छ पेयजल, शीतल, गन्धरहित तथा निःस्वाद होता है। जल की कठोरता सिलिका पैमाने पर 5 इकाई से अधिक होने पर प्रदूषक माना जाता है।भौतिक प्रदूषक तत्वों से जीवों के शरीर एवं इन्द्रियों पर तनाव बढ़ता है। इनमें निम्न तत्त्व प्रमुख हैं-

 (i) जल के बढ़ते तापमान के साथ उसमें घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। 20°C ताप पर ऑक्सीजन की घुलनशीलता अधिकतम 92 मिग्रा०/ 1 होती है। 49°C पर यह मात्रा 6.6 मिग्रा०/1 रह जाती है। बढ़ते तापमान का जलीय जीवों की इन्द्रियों पर तो कुप्रभाव पड़ता ही है, ऑक्सीजन की कमी से वनस्पति और जन्तु भी प्रभावित होते हैं। 

 (ii) भौतिक प्रदूषण जल में अधिक मात्रा में ऐसे बाह्य पदार्थों के समावेश से भी होता है जो जल में तैरते हैं। इससे जल में वायु प्रवेश्यता एवं प्रकाश प्रवेश्यता घटती है जिससे फोटो संश्लेषण प्रक्रिया बाधित होती है। परिणामस्वरूप वायु प्रवेश्यता और घट जाती है। इन सबका सम्मिलित कुप्रभाव जलीय जीवों पर पड़ता है।

 (iii) स्वाद, रंग, गन्ध आदि सामान्य से भिन्न होने पर जल देखने में गन्दा लगता है एवं वितृष्णा उत्पन्न करता है। घरेलू मल प्रवाह, औद्योगिक संदूषित जल अथवा विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्त्वों के स्वच्छ जल में मिलने से प्रदूषण उत्पन्न होता है। जल के रंग में गाढ़ापन आ जाने सेउसके भीतर प्रकाश की प्रवेश क्षमता घट जाती है जिसका जलीय जीवों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। 

2. रासायनिक :- जल में ऐसे रसायानों का मिश्रण जिससे वह पेयजल के रूप में अस्वास्थयकर हो जाए, रासायनिक प्रदूषण कहलाता है। वही पेयजल शुद्ध माना जाता है जिसका pH मान 7.00 से 8.5 के माय हो तथा जिसमें अपद्रव्य निर्धारित सीमा से अधिक न हो। यदि pH मान 6.5 से कम या 9.7 से अधिक हो जाए तो जल अत्यधिक हानिकारक माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपद्रव्यों को निम्न सीमाएँ निश्चित की हैं। अनेक अम्लीय पदार्थ; जैसे-साइनायड, कैडमियम, आर्सेनिक, शौशा, पारा आदि ऐसे अपद्रव्य हैं जिनकी न्यून मात्रा भी स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक हो सकती है। नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस सतहगत जल में सामान्यतया नहीं होते। जल में इनके समावेश से ड्यूट्राफिकेशन में वृद्धि होती है; अतः इन्हें भी प्रदूषण की कोटि में रखा जाता है।

3. जैविक :- जल में सूक्ष्म बैक्टीरिया एवं विषाणु की उपस्थिति स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त हानिकारक प्रदूषक है; यथा- बेसिल्स कोलाई की अत्यल्प संख्या भी हानिकारक है। उसी प्रकार कोलोफार्म मैक्टीरिया 100 मिली० में 10 से कम रहने चाहिए।

4. कायिक :- वह जल जिसमें उपर्युक्त किसी भी प्रकार की अपद्रव्य निर्धारित सीमा से अधिक से अथवा संयुक्त रूप से उपस्थित होकर मनुष्य या किसी अन्य प्राणी के शरीर में चयापचय की प्रक्रिया को प्रदूषण कहा जाता है।

कुछ विद्वान जल प्रदूषण को निम्नलिखित प्रकार से विभाजित करते हैं 

1. अलवण जलीय प्रदूषण -

(i) भूपृष्ठीय जल का प्रदूषण : नदी तथा झीलें भूपृष्ठीय अलवण जलीय प्रदूषण के उदाहरण हैं। इनमें ताजा जल होता है। इनमें प्रदूषण के स्रोत घरेलू गन्दा पानी और वाहित मल, औद्योगिक भूमिगत प्रदूषक कचरागत, सैफ्टिक टैंक, सोकपिट टैंक से भूमिगत जल में पहुंचते हैं तो ये भूमिगत जल के स्वभाव को बिगाड़ देते हैं। 

(ii) भूमिगत जल का प्रदूषण : जब प्रदूषक अन्त:सावित जल के साथ भूमिगत जल में प्रवेश करअवशेष, कृषि अवशेष आदि आते हैं।

2. सागरीय जल का प्रदूषण : यदि जल में की मात्रा 35 PP) या उससे अधिक हो तो ऐसे जलाशय समुद्र कहलाते हैं महासागरों, समुद्री मुहानों लवणीय कच्छों और अन्य प्रकार के जलाशयों के प्रदूषण की समुद्री प्रदूषण कहते हैं। यह प्रदूषण भी मानवीय क्रियाओं के परिणामस्वरूप ही होते हैं।


जल प्रदूषण के कारण

सभी देशों में जल प्रदूषण की समस्या एक विकट समस्या के रूप में अपना विस्तार करती ह है। ज्यों-ज्यों समय व्यता रहा है वायु और ध्वनि प्रदूषण से भी तीव्र गति से जल प्रदूषण की स्थिति होती जा रही है। जल प्रदूषण के कारणों के पीछे मनुष्य द्वारा उसका अनुचित उपयोग होता है। बढ़ती आबादी से अत्यधिक आवश्यकता को पूर्ति हेतु अनेक औद्योगिक बहुलताएँ भी जल प्रदूषण में अत्यधिक वृद्धि कर रही है। इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन में मनुष्य के कार्य करने के किसी-न-कसी प्रकार से जल के प्रदूषित होने की सम्भावना बनी रहती है। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित रूप से बताए जा सकते हैं -

1. मनुष्य के दैनिक अपशिष्ट पदार्थ : मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में उपलब्धता के आधार पर जल का प्रयोग प्रचुरता से करता है। मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जल के स्रोतों यथा- नदी, तालाब, कुएँ के आस-पास मनुष्यों द्वारा मल-मूत्र त्याग करना मृत जीव जन्तुओं को जल में डाल देने से जल प्रदूषित हो जाता है। नदी में डाले जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों के कार्बनिक तत्वों पर जीवाणु सक्रिय हो जाते हैं और उसे खनिजों में परिवर्तित कर देते हैं, जबकि मनुष्यों द्वारा जल में डाला जाने वाला उपशिष्ट पदार्थ जिनका उपयोग जीवाणुओं द्वारा होने पर वे खनिजों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। अगर उनकी मात्रा नदी के जल के स्वशुद्धीकरण क्षमता से अधिक होती है तो ऐसे सूक्ष्म जीवों की संख्या में वृद्धि हो जाती है जो हानिकारक होते हैं तथा वह नदी की स्वच्छता को प्रभावित कर उसमें दुर्गन्ध भर देते हैं।

2. औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ : बढ़ती आबादी से बढ़ती आव कताओं के कारण उद्योगों के विकास में तीव्र गति से वृद्धि हुई। इन औद्योगिक इकाइयों द्वारा जल का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इनके द्वारा उपयोग में लाए गए जल में अनेक प्रकार के लवण, अम्ल, क्षार, गैसें तथा रसायन घुले हुए होते हैं। जल में घुले हुए थे औद्योगिक अपशिष्ट सीधे नदी, तालाब, झील अथवा अन्य जल स्रोतों में प्रवाहित कर दिए जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप जल प्रदूषण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह प्रदूषित जल जब मनुष्य, जीव-जन्तु, वनस्पति सभी प्रयोग में लाते हैं, प्रभावित हो जाते हैं। उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण से जल प्रदूषण में वृद्धि भी होती जा रही है।

3.कृषि रसायनों द्वारा जल प्रदूषण : जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि के कारण खाद्यान्नों की माँग में भी तीव्र गति से वृद्धि होना सामान्य बात है। अत: कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने खेतों में अनेक रसायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं के प्रयोग को बढ़ावा दिया। ये रासायनिक खादे या इनके रासायनिक पदार्थ वर्षा के जल के साथ एक अच्छी मात्रा में नदी, तालाबों एवं झीलों या अन्य जल स्रोतों में चले जाते हैं जिसके फलस्वरूप जल में शैवाल वनस्पतियों में वृद्धि होने लगती है जो अपने विकास के लिए जल के अधिकांश ऑक्सीजन का उपभोग कर लेते हैं जिससे जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है जिसका विपरीत प्रभाव जलजीवों और मनुष्य पर पड़ता है।

4. शक्ति उत्पादक संयन्त्रों द्वारा जल प्रदूषण : अनेकों प्रकार के शक्ति उत्पादक यन्त्रों को ठण्डा करने के लिए अधिक से अधिक जल की आवश्यकता पड़ती है। मुख्य रूप से परमाणु संयन्त्रों में प्र मात्रा में जल को प्रयोग में लाया जाता है। इन संयन्त्रों से निकलने वाले जल का तापमान अत्यधिक होता है और उसमें रेडियोन्यूक्लिाइड पदार्थ की अत्यधिक मात्रा पाई जाती है। इस जल को प्रायः सीधे जलस्रोतों में छोड़ दिया जाता है जिसका प्रतिकूल प्रभाव जल-जीवों पर पड़ता है जिसके कारण कुछ है या बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं, नहीं तो दूसरे जगत में पलायन कर जाते हैं। 

5. अपमार्जक प्रदूषण : बढ़ती हुई औद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप साफ-सफाई के लिए अनेक प्रकार के पाक (डिटरजेन्ट) बाजार में आ गए हैं। इनका उपयोग दिन प्रतिदिन जा रहा है। ये जब पानी में घुलकर जलाशयों या जलस्रोतों में पहुंचते हैं तो पानी की सतह पर इनके ठोस कणों को बन जाती हैं। इन पत्तों के कारण सूर्य का प्रकाश जल में प्रवेश नहीं कर पाता जिसका परिणाम यह होता है कि जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और जल में ऑक्सीजन की कमी होने से चास प्रति हो जाता है। यह जल जीवों, पशुओं और मनुष्यों पर हानिकारक प्रभाव डालता है।

6. खनिज तेल : खनिज तेल को जलमार्ग द्वारा ले जाने वाले जहाजों द्वारा भारी मात्रा में तेल को जल तह पर छोड़ने तथा कभी-कभी जहाजों का समुद्र में दुर्घटनाग्रस्त होने से जल प्रदूषण होने लगता है। लेकिन जब यह खनिज तेल निकाले जाते समय या अन्य जगहों पर पहुंचाने में भूमि पर बिखर जाते हैं तो भूमि पर बिखरने वाला तेल वर्षा के समय मिट्टी के साथ बहकर जलाशयों में पहुंचकर प्रदूषण फैलाता है। 

7. शवों के जल प्रवाह से प्रदूषण : अनेक मृत जीव-जन्तुओं, पशुओं एवं मनुष्यों के शव को नदियों में विसर्जित कर देने से भी जल प्रदूषित हो जाता है। कई स्थानों पर जली अधजली लाश अग्नि और उनसे उत्पन्न राख को नदियों में डाल दिया जाता है जिससे जल के तापमान में वृद्धि होती है और जल प्रदूषित हो जाता है।


जल के मुख्य प्रदूषक तत्त्व 

जल में मिले प्रदूषक तत्त्वों में शीघ्र प्रभाव के रूप में अनेक बीमारियाँ सामने आती हैं। इसमें मिश्रित तत्व जीव-जन्तु, वनस्पतियों और मनुष्यों पर दुष्प्रभाव छोड़ते हैं। इनमें से कुछ प्रदूषक, तत्त्व मनुष्यों पर दुष्प्रभाव छोड़ते हैं। इनमें से कुछ प्रदूषक तत्व धीरे-धीरे असर दिखाते हैं तथा कुछ तत्काल प्रभाव छोड़ते हैं। जल में मिश्रित तत्व जब एक सीमा से अधिक मात्रा में पानी में घुल जाते हैं तो जीव-जन्तुओं और मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इनमें कुछ प्रमुख प्रदूषक तत्वों का विवरण निम्नलिखित है-

1. सीसा : यह जहरीला प्रदूषक तत्त्व है। जल में निर्धारित मात्रा में अधिक घुल जाने से यह जन स्वास्थ्य को प्रभावित करने लगता है। इससे मस्तिष्क, जिगर या गुर्दे की बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। महिलाओं में गर्भपात, मानसिक इस तथा हीमोग्लोबिन की कमी होने से अनेक बीमारियाँ होने लगती हैं। 

2. पारा : यह एक प्रकार का प्रोटोप्लाज्यिक जहर है जो रक्त संचरण तन्त्र में अवशोषित होकर हड्डी, गुर्दा, लीवर में जमा हो जाता है। इससे मुँह एवं मसूड़ों पर बुरा असर पड़ता है। चेचक होने का खतरा बढ़ जाता है। इसमें अम्लीय पारा और भी जहरीला होता है। पारे की मात्रा लगातार शरीर में प्रवेश करने से मीनामाटा रोग होने की सम्भावना रहती है। 

3. सोडियम: यह अत्यन्त सक्रिय तत्त्व है जो केवल यौगिकों के रूप में ही पाया जाता है। इनमें जहरीलापन केवल घन-आयन के कारण ही होता है।

4. फ्लोराइड : यह बहुत ही जहरीला प्रदूषक तत्व है जो अकार्बनिक रूप में पाया जाता है। जल में फ्लोराइड की मात्रा को असन्तुलन की स्थिति में खून की बीमारी, दाँतों की बीमारी, वजन कम होना, हड्डियों का मुड़ जाना, जोड़ों में दर्द, अंगों का असाधारण विस्तार आदि की बीमारियाँ बढ़ जाती हैं। जल में फ़्लोराइड की मात्रा 1 PPM से अधिक होने पर बच्चों के दाँतों में छेद हो जाते हैं। 1.5 PPM से अधिक होने पर दाँतों की चमक समाप्त हो जाती है तथा उस पर धब्बे पड़ जाते हैं।

5. फिनॉल : यह कार्बनिक रूप में अत्यन्त जहरीला पदार्थ है। यह गुर्दे, लीवर तथा फेफड़ों पर बुरा असर डालता है। यह त्वचा तथा अन्त को बहुत प्रभावित करता है। 15 से 20 मिनट तक के सम्पर्क में रहने से मांसपेशियों में कमजोरी, कम सुनना, कम दिखाई देना, सिर दर्द तथा जल्दी ज साँस लेने के कारण शी भी 60 पर फिनॉल के प्रभाव से मनुष्य की मृत्यु तक हो सकती है।

6. नाइट्राइड : बहुत की खतरनाक प्रदूषक तत्व है। इससे बच्चों में बीमारी हो जाती है। का रंग हरा हो जाना तथा उल्टियाँ होना इसके मुख्य प्रभाव हैं।

7. पेशोसैनिक बैक्टीरिया : यह स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक होते हेपेटाइट है, इन्फेक्शन आदि बीमारियाँ फैलती है। 

8. जस्ता : यह जहरीला पदार्थ नहीं होता लेकिन इसके यौगिक कुछ जहरीले अवश्य होते हैं। जस्ता को गर्म किया जाता है तो ब्रास फाउण्डर रोग एवं ब्रास चिलस नामक बीमारियाँ हो जाती हैं। जिंकक्लोराइड की अधिक मात्रा फेफड़ों को खराब कर सकती है। इसकी अधिक मात्रा लेने से तेज उल्टियाँ भी होने लगती हैं।


जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव 

प्रदूषित जल से समुद्री जीवों, जलीय पादपों तथा मानव जाति को हानि पहुंचने लगती है। इससे इन सबका जीवन खतरे में पड़ जाता है और उनकी वृद्धि भी रुक जाती है। जल प्रदूषण का सबसे अधिक प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। इससे मनुष्य अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाता है; जैसे-साँस रोग, हैजा, पीलिया, पेचिश, रतिरोग, अतिसार, मोतीझारा, लकवा आदि।

         जैसा कि ऊपर मुख्य प्रदूषक तत्त्वों को बताया गया उनमें से सबसे खतरनाक जल प्रदूषक फ्लोराइड है जिसकी मात्रा अधिक होने से रीढ़ की हड्डी टेढ़ी हो जाती है तथा पैरों की हड्डियाँ लचक जाती हैं, दाँतों में छेद होने लगते हैं तथा उन पर धब्बे पड़ने लगते हैं। शरीर बैडोल हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फ्लोराइड की मात्रा को कम करने के उपाए किए जा रहे हैं। इसी प्रकार के ऐसे अनेक प्रयक तत्त्व, जैसे- पारा, सीसा, सोडियम, फिनॉल, जस्ता, नाइट्राइड आदि की अधिकता से जल प्रदूषित होने के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो रहे हैं। उदाहरणार्थ- हीमोग्लोबिन की कमी, सिरदर्द, कम सुनना, ब्रास चिलस, ब्लूबेबी आदि। इनकी भी रोकथाम के लिए राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रयास किए जा रहे हैं।


जल को शुद्ध करने के उपाय

       जल शुद्ध करने के लिए विभिन्न उपाय जल में होने वाली अशुद्धियों तथा उसकी मात्रा पर निर्भर करते हैं। अशुद्ध जल को निम्नलिखित विधियों के माध्यम से शुद्ध किया जा सकता है -


(1) प्राकृतिक विधि (Natural Method)


(2) कृत्रिम विधि (Artificial Method)


1. प्राकृतिक विधि : इस विधि में जल दो ढंग से साफ होता है—


(i) भाप बनकर या घनीभूत होकर पानी का शुद्ध होना। 

(ii) नदी के जल में प्राकृतिक शुद्धता होना।

नदी का जल प्राकृतिक रूप से दो क्रियाओं द्वारा शुद्ध होता है-


(a) क्षणीकरण : इसमें अधिक जल के मिलने से गन्दगी की कमी हो जाती है। 

(b) तलछटीकरण : इसमें जल का दूषित भाग पर्याप्त मात्रा में नदी के जल में बैठा रहता है। इसमें का अन्य तत्त्वों से योग होकर भिन्न-भिन्न पदार्थों के ऑक्सीकरण में सहायता मिलती है। जन द्वारा जल में उपस्थित गन्दगी और जीवाण दोनों की कमी होती रहती है। सूर्य की रोशनी में किरणे' होती हैं। इन किरणों में जल के जीवाणुओं को नष्ट करने की शक्ति होती है। इनका प्रभाव भी होता है जब जल पर्याप्त मात्रा में साफ एवं चमकीला होता है। इन किरणों द्वारा जल के को बिना रासायनिक परिवर्तन के नष्ट किया जा सकता है।


2. कृत्रिम विधि : कृत्रिम विधि के द्वारा कई विधियों से जल को शुद्ध किया जाता है

(i) निथारकर : इस विधि में पानी कुछ समय के लिए टैंक या बर्तन आदि में उहरने देते हैं। इससे जो अशुद्धियाँ होती हैं वे भारी होने के कारण नीचे बैठ जाती है और साफ पानी आ ऊपर जाता है।

(ii)आसवन : इस विधि का प्रयोग रासायनिक प्रयोगशालाओं, जहाज तथा एडेन (Aden) जैसे स्थानों पर किया जाता है। आसवन किया हुआ जल स्वादहीन तथा भारी होता है क्योंकि इसमें घुलनशील गैसों का अभाव होता है, अतः आसवन किए हुए जल को प्रयोग में लाने से पूर्व वातित (Aerated) कर लेना चाहिए।

(iii) अवक्षेपण : कीचड़ वाले जल को शुद्ध करने के लिए फिटकरी बड़ी उपयोगी वस्तु है। पानी में फिटकरी घोल देने से मिट्टी आदि अघुलनशील अशुद्धियाँ नीचे बैठ जाती है। प्रायः एक गैलेन पानी के लिए 6 ग्रेन अथवा 1 लीटर पानी के लिए 1/2 ग्राम फिटकरी पर्याप्त होती है। 

(iv) उबालना : पानी को उबालने से उसके ठोस तत्त्व, जैसे- चॉक, रोगजनिक तत्व, कार्बनिक पदार्थ आदि समाप्त हो जाते हैं। गृहकार्य के लिए जल शुद्ध करने की यह उत्तम विधि है। पानी को कम-से-कम 212" फारेनहाइट तापक्रम पर उबालना चाहिए। इस तापक्रम पर समस्त प्रकार के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। पानी को उबालने से उसमें विद्यमान कीटाण भी नष्ट हो जाते हैं और धुली हुई अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं। उबला हुआ पानी स्वादहीन हो जाता है, इसलिए इसे पीने योग्य बनाने हेतु एक बर्तन से दूसरे बर्तन में कई बार उँडेलना चाहिए। इससे उसमें वायुमिश्रित हो जाएगी और पानी पीने में स्वादिष्ट लगेगा।

(v) निष्संक्रमण : इस विधि के अन्तर्गत ऐसी वस्तुओं को पानी में मिलाया जाता है जिससे बैक्टीरिया आदि नष्ट हो जाते हैं। इसमें मुख्य रूप से ये पदार्थ प्रयोग में लाए जाते हैं-नोला थोथा, क्लोरीन की गोली, पोटैशियम परमैग्नेट, लाल दवा, आयोडीन, चुना, ब्लीचिंग पाउडर, ब्रोमीन आदि। 

(vi) स्त्रावण विधि: यह जल को शुद्ध करने की सर्वोत्तम विधि है। इसमें पहले जल को उबालकर भाप में परिवर्तित कर दिया जाता है और फिर उस भाप को शीतकों द्वारा द्रवीभूत कर देते हैं। इस विधि से विलेय और अविलेय दोनों प्रकार की अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं। 

(vii) यान्त्रिक साधनों द्वारा : यान्त्रिक साधनों से रासायनिक विधि से जल को पूर्णतः शुद्ध किया जाता है। इस विधि में प्रयुक्त होने वाले यन्त्रों को निस्यदक यन्त्र कहते हैं। इस विधि में जल की शुद्धि छानने की रीति से होती है। इस विधि में पहले पानी को तालाबों में इकट्ठा किया जाता है। जहाँ मिट्टी और गन्दगी नीचे बैठ जाती है तथा धूप और हवा से कीटाणु मर जाते हैं। इसके बाद पानी को दूसरे तालाब में ले जाते हैं इन्हें 'फिल्टर बैड्स' कहते हैं। इन तालाबों में रेत और बजरी की मोटी तहें होती हैं। इन तहों में से होकर पानी छनता हुआ नली से होकर जल संग्रहालय में चला जाता है।


जल प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपाय 

बढ़ती हुई आबादी तथा औद्योगिकीकरण में लगातार हो रही वृद्धि से जल प्रदूषण की समस्या कॉफी विकट हो गई है। इसको नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए-

(i) औद्योगिक संस्थाओं को तब तक स्थापित न होने दिया जाए, जब तक उसके द्वारा अपशिष्ट जल को विसर्जित करने की उचित व्यवस्था न हो जाए।

(ii) औद्योगिक संस्थाओं द्वारा विसर्जित जल और मनुष्यों के द्वारा विसर्जित मल-मूत्र जल को नदियों में जाने से पूर्व विशाल प्लाटों द्वारा उन्हें हानिरहित किया जाए।

(iii) प्रत्येक क्षेत्र में वाहित शोधन यन्त्र लगाए जाए जिससे जल से प्रदूषणकारी तत्त्व पृथक किए जो सके।

(iv) जल प्रदूषण को कम करने के पुनर्चक्रण तरीकों का विकास करना आवश्यक है। इसके द्वारा अनेक अपशिष्ट पदार्थों को उपयोगी बनाया जाए; जैसे-गोबर गैस या बायो गैस प्लांट लगाए जाएँ।

(v) ताप विद्युत उत्पादक केन्द्रों को ठण्डा रखने के लिए जल के स्थान पर किसी अन्य साधन का प्रयोग किया जाए।

(vi) औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों का चक्रीकरण करके जल प्रदूषण को कम किया जाए। 

(vii) पशुओं और मनुष्यों के लिए अलग-अलग तालाबों की व्यवस्था हो।


जल प्रदूषण रोकने के उपाय


जल प्रदूषण रोकने के निम्नलिखित उपाय होने चाहिए -

(i) पर्यावरण संरक्षण की चेतना का विकास पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से किया जाए। 

(ii) उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषकों के निस्तारण की समुचित व्यवस्था की जाए। 

(iii) नदी, तालाब आदि में कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने, अन्दर घुसकर पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगाया जाए।

(iv) मल-मूत्र, कूड़ा-करकट के निस्तारण की उचित व्यवस्था की जाए। 

(v) संदूषित एवं प्रदूषित जल के लिए सस्ती एवं प्रभावी विधियाँ खोजी जाएँ। 

(vi) मृत जीवों को जल में विसर्जित करने पर रोक लगाई जाए।

(vii) कृषि में कीटनाशी आदि रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित किया जाए।

(viii) जल को कीटाणुरहित बनाने के लिए रसायनों का उचित मात्रा में प्रयोग किया जाए।

(ix) मछलियों की कुछ जातियाँ जलीय खरपतवारों का भक्षण करती हैं ऐसी मछलियों को पाला जाए।

(x) पेयजल स्रोतों पर विशेष ध्यान दिया जाए।

(xi) सीवर की व्यवस्था शहरों, गाँवों में भली प्रकार की जाए।

(xii) संदूषित जलाशयों की मिट्टी निकालकर उन्हें साफ किया जाए। 

(xiii) औद्योगिक वाहित जल के उपचार की विधियों पर अनुसन्धान किया जाए। 

(xiv) जनसाधारण को जल प्रदूषण के कारणों, दुष्प्रभावों तथा रोकथाम की विधियों के बारे में जागरूक बनाया जाए।

(xv) लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यक्रम बनाए जाएँ तथा उन्हें अनेक माध्यमों से प्रचारित और प्रसारित करवाया जाए।


विश्वस्तरीय जल प्रदूषण की समस्या 

विश्व में उपलब्ध जल (कुल 140 करोड़ घन किमी) का 97.2% समुद्रों में संचित है। मात्र 2.7% स्थल पर मिलता है। कुल जल का मात्र 0.34% ही जल चक्र में संचरण करता हुआ मनुष्य एवं अन्य प्राणियों के लिए सुलभ है जो 2.7% स्थल भाग पर उपस्थित जल है उसका भी 77% हिमानियों के रूप में है तथा 22% सतह के अन्दर इतनी गहराई पर (800 मी० से अधिक) फॉसिल जल के रूप में संचित है वह उपलब्ध नहीं है। सिर्फ 0.27% पेयजल है। उपयोग के अनुसार कुल जल का जो 0.34% उपलब्ध है उसमें 69% सिंचाई, 23% उद्योगों तथा मात्र 8% घरेलू उपयोग में प्रयुक्त होता है। स्पष्ट है कि औसत उपयोग प्रतिरूप है। वास्तविक उपयोग में विश्व के विभिन्न देशों एवं प्रदेशों में पर्याप्त भिन्नता से शीतोष्ण एवं शीत कटिबन्धीय विकसित देशों में कुल उपलब्ध जल का लगभग 50% औद्योगिक कार्यों में प्रयुक्त होता है, जबकि अल्प विकसित देशों में लगभग 70% जल सिंचाई के काम आता है। कुल मिलाकर वर्ष 1998 में जल का वार्षिक उपभोग (विश्व में) प्रति व्यक्ति 645 घनमीटर था। जो शुष्क देशों से 2000 घन मी० अधिक था। जल उपयोग में औसत वार्षिक वृद्धि लगभग 6% थी।

              जल मानव के विभिन्न उपयोगों से जुड़ा हुआ है। सतह गत या भूमिगत जल मानव द्वारा उपयोग हेतु उपलब्ध है। उसके प्रदूषित होने के मुख्य कारण हैं मानव द्वारा जल को उपयोग में लाए जाने के फलस्वरूप जल समाविष्ट अपद्रव्यों को बिना निकाले, जल को नदियों, झीलों या समुद्रों में बहाना। इनके अतिरिक्त नदियों एवं झीलों में कृषि क्षेत्रों से प्रवाहित जल के प्रवेश के साथ-साथ उनमें घुले हुए उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं के अंश पहुँचते हैं। इससे इन जल स्रोतों की विविध जीवों की पोषण क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

       विभिन्न जल स्रोतों के जल की गुणवत्ता का मापन उनमें घुले ऑक्सीजन की मात्रा के आधार पर किया जाता है जिसे जैव रासायनिक ऑक्सीजन माँग (BOD) कहते हैं। यह ऑक्सीजन की उस मात्रा का द्योतक है जिससे सूक्ष्म जीवाणु जल में मिले अपशिष्ट पदार्थों को कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल में परिणत करने में उपयोग करेंगे। मनुष्य जल का बहुविधि उपयोग करता है। इसके विविध प्रकार से उपयोग होने के कारण (पेयजल, मलप्रवाह, मत्स्यपालन, सिंचाई, जल परिवहन, कारखाना, औद्योगिक उत्पादन आदि) जल का अत्यधिक उपयोग एवं परिणामस्वरूप प्रदूषण भी होता है। विश्व में अनगिनत नदियों, झीलों, सागरों का कहाँ किस हद तक प्रदूषण हुआ है इसका आकलन आसान नहीं है। UNEP की एक शाखा GEMS (Global Environment Monitoring System) ने वर्ष 1976 से 59 देशों में 450 केन्द्रों पर जल की गुणवत्ता सम्बन्धी आँकड़े लेने प्रारम्भ कर दिए हैं। परन्तु अभी ये आँकड़े व्यवस्थित रूप में उपलब्ध नहीं हैं। अतएव कुछ फुटकर उदाहरणों द्वारा ही विश्वस्तर पर जल के प्रदूषण एवं समस्याओं का अन्दाज लगाया जा सकता है। अब तक उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर इतना स्पष्ट है कि विकसित और अल्पविकसित सभी प्रकार के देशों में सघन बसे नगरीकृत क्षेत्रों की नदियाँ, झीलें एवं सागर तट चिन्ताजनक स्तर तक प्रदूषित हैं। उदाहरणार्थ-वर्ष 1970 ई० तक मिसीसीपी नदी का BOD प्रति लीटर 2.4 किग्रा०, राइन में 6.1 किग्रा हो गया था। भारत में नदियों में प्रवाहित जल 90% प्रदूषित है। गंगा की गणना अब विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में की जाने लगी है। कानपुर के नीचे इसके जल का BOD 18 किग्रा /लीटर पाया गया है। इसी प्रकार चीन की 78 बड़ी नदियों में से 54 मल प्रवाह एवं औद्योगिक अपशिष्टों से प्रदूषित है। बैंकाक के निकट चायोफ्राया इतनी प्रदूषित है कि इसके जल में ऑक्सीजन का नितान्त अभाव हो गया है।

     इस प्रकार कहा जा सकता है कि जल प्रदूषण का कुप्रभाव संसाधन की उपलब्धता एवं गुणवत्ता पर भी पड़ता है, जैसे प्रदूषित जल से सिंचाई फसल उत्पादन के लिए हानिकारक हो जाती है। मछली विश्व के अल्प विकसित देशों की बहुत बड़ी जनसंख्या के लिए प्रोटीन का एकमात्र साधन है। प्रदूषित जलागारो में या तो क्षमता के जल निस्तारण की समुचित व्यवस्था न होने या इनमें पारा, सीसा, कैडमियम, डी०डी०टी० की बीमारियों से मछलियों की संख्या में भारी कमी हो जाती है।

     इसके अतिरिक्त सतहगत एवं भूमिगत जल के प्रदूषण से जनसामान्य में, जिन्हें नल द्वारा शोधित जल की सुविधा प्राप्त नहीं है, उनमें नाना प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। इनमें अफ्रीका में बिल हजारिस मानसून एशिया के जल प्लावित देशों में मस्तिष्क ज्वर (इन्सेफेलाइट्स) जैसी बीमारियों का व्यापक प्रसार हुआ है। इनके अतिरिक्त जल प्रदूषण से आँत सम्बन्धी बीमारियाँ; जैसे-गेस्ट्रो इन्ट्राइटिस, डायरिया हेपेटाइटिस बी, पीलिया आदि सामान्य हैं। इन बीमारियों से अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले निर्धन लोग कुप्रभावित होते हैं जिससे उनकी कार्यक्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ता है। दक्षिण अमेरिका में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार शुद्ध पेयजल की सुविधा प्रदान करने से कार्य दिवसों में वृद्धि के कारण जल आपूर्ति की लागत से सात गुनी अधिक बचत हुई। इससे स्पष्ट है कि सन्दूषित जल के कारण उत्पन्न रुग्णता विकास के लिए एक बड़ी बाधा है। जिन देशों में त्रुटिपूर्ण सिंचाई व्यवस्था, अर्थात् जल निस्तारण की समुचित व्यवस्था के बिना, खेतों को पानी पहुँचाने की सुविधा प्रदान की गई है। वहाँ जल प्लावन बढ़ने से मस्तिष्क ज्वर, फाइलेरिया, मलेरिया जैसे रोगों में वृद्धि हुई है। इसी प्रकार जहाँ झीलों एवं नदियों के किनारे अवस्थित कारखानों से अशोधित औद्योगिक बर्हिस्राव छोड़े जाते हैं, वहाँ जल अत्यधिक प्रदूषित हो जाने के कारण मछली आदि जल जीवों का अभाव हो जाता है। इन जीवों के माध्यम से भोजन श्रृंखला में विषाक्त पदार्थ संकेन्द्रित होता है, जिससे मनुष्य भयंकर बीमारियों का शिकार हो जाता है। जापान को मिनीमाता दुर्घटना इसका बड़ा ही सुन्दर उदाहरण है।

          जल प्रदूषण में बढ़ोतरी इन उपर्युक्त तथ्यों पर आधारित है। विश्व जैसे-जैसे विकास करता जा रहा है जनसंख्या में जैसे-जैसे वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मानव अनेक ऐसे अपशिष्ट पदार्थ पैदा कर रहा है जो किसी न किसी रूप में जल को संदूषित और प्रदूषित करता जा रहा है। इसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव मानव के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। अतः हमें अपने विकास और आवश्यकताओं के साथ इन उपर्युक्त बातों पर ध्यान देना होगा, नहीं तो इस विकास के लक्ष्य एवं उद्देश्य से मानव को स्वस्थ जीवन दुष्प्राप्य हो जाएगा।