पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र (Scope of Environmental Education)


 

पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र (Scope of Environmental Education)

     पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र विस्तार अत्यन्त व्यापक है। यह एक अन्तः अनुशासनात्मक प्रक्रिया है। इसके अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भौतिक, जैविक आदि विषय समाहित हैं। पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत लगभग समस्त विषयों का अध्ययन हो जाता है। हालांकि पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करना कठिन कार्य है तथापि इसके क्षेत्र विस्तार के आध्ययन का प्रयास किया जा रहा है, जो निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध हैं-

1. पर्यावरणीय शिक्षा की अवधारणा का निर्माण:- पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत पर्यावरणीय अवधारणा का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत नागरिकों को पर्यावरण के घटकों, तत्त्वों, प्रक्रियाओं एवं अवययों की महत्ता का ज्ञान कराया जाता है, जिससे उनको पर्यावरण से सम्बद्ध किया जा सके। नागरिकों को यह अनुभव कराना कि पर्यावरण मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। इससे सम्बन्ध बनाए बिना मानव की जैविक क्रियाएँ संचालित नहीं हो सकर्ती। परिणामस्वरूप उनमें पर्यावरण के प्रति प्रेम, सहिष्णुता, आत्मीयता, निरीक्षण एवं अवलोकन की प्रवृत्ति का विकास होता है, जिससे वे पर्यावरण और मानव के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को समझ सकते हैं।

2. पर्यावरणीय शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण :- पर्यावरण को सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए यह आवश्यक है कि इसका ज्ञान जनसामान्य को प्रदान किया जाए। पर्यावरण की विषय वस्तु के निर्धारण के पूर्व यह आवश्यक है कि किन-किन उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से की जानी है। पर्यावरण शिक्षा द्वारा शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पर्यावरण अध्ययन के उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं तथा यह भी निर्धारित किया जाता है कि किन उद्देश्यों के द्वारा व्यक्तित्व के किन-किन पक्षों का विकास किया जाएगा। इन बातों का अध्ययन पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र के विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है।

3. पर्यावरण शिक्षा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :- पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत नागरिकों को इस बात का ज्ञान कराया जाता है कि पर्यावरण शिक्षा के विकास के क्रम में उसने प्राचीन काल से वर्तमान काल तक किस प्रकार का सफर तय किया है। इसके अन्तर्गत पर्यावरण शिक्षा में आए परिवर्तनों सुधारों का अध्ययन किया जाता है। किसी विषय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अध्ययन से हमें यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि पूर्व में हमें किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप प्राचीन काल में यद्यपि औपचारिक नहीं था तथापि अनौपचारिक रूप से ही मानव को पर्यावरण को आवश्यकता एवं महत्त्व का ज्ञान प्रदान किया जाता था। यह ज्ञान उसे दैनिक क्रियाओं एवं पूजा-अर्चनों की विधियों से जोड़कर दिया जाता था। वर्तमानकाल में जबकि पर्यावरण शिक्षा ने औपचारिक स्वरूप ग्रहण कर लिया है, इसे विद्यालय के पाठ्यक्रम में भी लागू किया जाने लगा है। इससे स्पष्ट होता है कि पर्यावरणीय शिक्षा में अनेकों विकास एवं परिवर्तन हुए हैं। इन समस्त घटनाओं का अध्ययन पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किए जाते हैं।

4. पर्यावरणीय शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्माण :- पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत शिक्षा के विभिन्न स्तरों के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। इसके अन्तर्गत पर्यावरण के क्षेत्र में अनुसंधान, सम्मेलन, क्रियात्मक योजनाओं, कार्यशालाओं एवं वाद-विवाद के परिणामों के निष्कर्षों के आधार पर पर्यावरण की पाठ्यवस्तु का निर्माण किया जाता है। इसके अतिरिक्त पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत पर्यावरण के पाठ्यक्रम के शिक्षण के पश्चात् किन मूल्यों की स्थापना छात्रों में होगी, इसका अध्ययन भी पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र के अन्तर्गत किया जाता है।

5. पर्यावरणीय शिक्षा की विधियों का निर्धारण :- विभिन्न शिक्षण विधियों का निर्धारण पर्यावरणीय शिक्षा की विषय-वस्तु के पूर्व स्पष्टीकरण के लिए आवश्यक है। छात्रों के जीवन में पर्यावरणीय शिक्षा की विषय वस्तु की उपादेयता को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि जो भी जानकारी उन्हें दी जाए, वह प्रभावी शिक्षण विधियों के माध्यम से दी जाए, जिससे छात्र-छात्राएँ पर्यावरणीय शिक्षा विषय-वस्तु को भली-भाँति आत्मसात् कर सके अर्थात् पर्यावरण शिक्षण की विभिन्न विधियों के स्तर के अनुरूप प्रभाविकता प्रदान के लिए निर्धारण का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है।

6. पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन :- पर्यावरण मनुष्य के जीवन के अस्तित्व से परीक्ष व अपरोक्ष दोनों रूपों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण शिक्षा के माध्यम से हम पर्यावरण और मानव के अटूट सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त करते हैं। वर्तमान समय से पर्यावरण की बढ़ती हुई विभिन्न समस्याओं का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है। यह पर्यावरणीय समस्याएँ निम्नवत् हैं-

  (i) प्रदूषण की समस्या : वर्तमान समय में पर्यावरण की प्रमुख समस्या प्रदूषण की समस्या है। प्रदूषण का विकराल स्वरूप सम्पूर्ण जीवन के लिए अभिशाप बन गया है। पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों; जैसे-जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, सामाजिक प्रदूषण आदि का अध्ययन किया जाता है। साथ ही इनके समाधान एवं निवारण की शिक्षा भी पर्यावरणीय शिक्षा के माध्यम से प्रदान की जाती है। प्रदूषण की समस्या और समाधान का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत की जाती है।


(ii) वनों का घटता हुआ क्षेत्र : चनों के घटते क्षेत्रफल का अध्ययन भी पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है। इसमें वन्य जीव-जन्तुओं के संरक्षण एवं संवर्धन तथा वन सम्पदा के क्षरण का अध्ययन किया जाता है। वन्य क्षेत्र में होने वाली कमी के कारण उत्पन्न खतरे तथा वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड का संचय तथा वन क्षेत्र की कमी को रोकने वाले उपायों यथा- सामाजिक वानिकी, वन महोत्सव, वृक्षारोपण, वृक्षभिज आदि और ग्लोबीय तापमान में सतत वृद्धि आदि का अध्ययन पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है।

(iii) बड़े-बड़े बाँध : विश्व में बनाए जाने वाले बड़े बाँधों से होने वाली पर्यावरणीय क्षति तथा वनों की कटाई, कृषि भूमि का जलमग्न होना, भूकम्प, गाँवों का विस्थापन, सिल्टिंग आदि का अध्ययन भी पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है। प्रकृति के अनावश्यक दोहन के फलस्वरूप उत्पन्न विभिन्न हानिकारक परिणामों का अध्ययन भी उसके क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है।

(iv) जनसंख्या विस्फोट : बढ़ती हुई जनसंख्या से भी पर्यावरणीय गतिविधियाँ प्रभावित हो रही हैं। जनसंख्या वृद्धि से होने वाले दुष्परिणामों का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है। जनसंख्या विस्फोट के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले उसके दुष्प्रभावों का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत आते हैं।

(vii) पर्यावरण संरक्षण के उपाय : पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत संरक्षण के अनेक उपायों का अध्ययन किया जाता है। पर्यावरण के प्रति मानव के उपेक्षित दृष्टिकोण ने वर्तमान में पर्यावरण के क्षरण होती स्थिति की रचना की है जिससे आज सम्पूर्ण मानव और संसार को खतरा उत्पन्न हो गया है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने एवं इसके संवर्धन के लिए संरक्षण के उपायों की जानकारी पर्यावरण के विभिन्न अवयवों का एक-दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ता है? तथा मानव उससे किस प्रकार सम्बद्ध हैं? इसका भी अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है।

(viii) शहरी पर्यावरण की समस्याएँ तथा विशेषता : भौतिकवादिता तथा औद्योगीकरण में हुई वृद्धि के परिणामस्वरूप दिन-प्रतिदिन शहरी पर्यावरण की समस्याओं; यथा-संकीर्णता, जन-सुविधाओं में कमी, गन्दी बस्तियों में वृद्धि, कचरा निस्तारण, सीवेज, वायु और ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि हो रही है, जिससे मानव जीवन अव्यवस्थित होता जा रहा है। इससे विभिन्न प्रकार की संक्रामक बीमारियों में वृद्धि हो रही है चाहे वे शारीरिक हो या मानसिक हो। इन समस्याओं के अध्ययन तथा उनके उपायों के निवारण का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है। बढ़ते हुए पाश्चात्य प्रभावों तथा सभ्यता पर पश्चिमी संस्कृति के पड़ने वाले प्रभावों के कारण अनेक समस्याएँ पर्यावरण के समक्ष प्रस्तुत हैं। औद्योगीकरण जहाँ विकास की प्रक्रिया को सुनिश्चित करता है वहीं पर उसका दूसरा अतिवादी पक्ष विनाश की प्रक्रिया को सुदृढ़ आधार प्रदान करता है। पर्यावरणीय शिक्षा शहरी पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं उनके समाधान की प्रक्रिया से परिचित कराती है तथा बाहरी पर्यावरण की विशेषताओं का अध्ययन भी पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है।

(ix) ग्रामीण पर्यावरण की समस्याएँ तथा विशेषता : पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत ग्रामीण परिवेश, ग्रामीण संस्कृति एवं ग्रामीण पर्यावरण की विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त निरन्तर उग्र रूप धारण करती भौतिकवादिता के कारण उत्पन्न पर्यावरण समस्याओं का अध्ययन भी पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों के प्रति उदासीनता का दृष्टिकोण तथा शहरों की ओर पलायनवादी प्रवृत्ति के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा द्वारा किया जाता है। ग्रामीण विमुखता का दृष्टिकोण भी ग्रामीण पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं को जन्म देती है। पर्यावरणीय शिक्षा के अन्तर्गत ग्रामीण पर्यावरण के वास्तविक स्वरूप से नागरिकों को परिचित कराने का उद्देश्य रखा गया है साथ ही साथ ग्रामीण पर्यावरण की विशेषताओं से परिचित कराने का कार्य भी पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत आता है।

(x) पर्यावरण तथा मानव में सम्बन्ध : मानव तथा पर्यावरण में अन्योन्याश्रितता का सम्बन्ध है। बिना पर्यावरण के मानव की संकल्पना नहीं की जा सकती और न ही बिना मानव के पर्यावरण की उपादेयता है। मनुष्य अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरणीय सम्पदा पर आश्रित रहता है तथा पर्यावरणीय सम्पदा मानवीय उपयोगिता के आधार पर अपनी सार्थकता को सुनिश्चित करती है।

        प्राकृतिक सम्पदा को हानि पहुँचाकर मानव अपने विनाश की प्रक्रिया को सुनिश्चितता प्रदान कर रहा है। पर्यावरण पर विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पौधे आदि आश्रित रहते हैं। बिगड़ते पर्यावरणीय सन्तुलन के फलस्वरूप अनेक जन्तु एवं वनस्पतियाँ विलुप्त होती जा रही हैं, जिसके कारण पृथ्वी पर मानव और पर्यावरण का सन्तुलन गड़बड़ा गया है।

         पर्यावरणीय शिक्षा में पर्यावरण तथा मानव के मध्य सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। साथ ही पर्यावरण के प्रति मानव की भूमिका को भी पर्यावरणीय शिक्षा आधार प्रदान करती है। पर्यावरण के संरक्षण में मानव के सकारात्मक योगदान की शिक्षा भी पर्यावरण शिक्षा के द्वारा दी जाती है। अतः मानव तथा प्रकृति के अटूट सम्बन्धों का अध्ययन पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत किया जाता है।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पर्यावरणीय शिक्षा का क्षेत्र विस्तार अत्यन्त विस्तृत है। लेकिन यहाँ पर उसे एक निश्चित सीमा में बाँधकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।